Saturday 25 August 2012

जिन्दगी की हकीकत, जिन्दगी ही जाने...

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मेरे विचार.. by DEEPCHANDRA SRIVASTAVA is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivs 3.0 Unported License.


जिन्दगी की हकीकत, जिन्दगी ही जाने,
सैकड़ो है उसके चाहने वाले,
उनमे से एक हम उसके दीवाने।।

वो हसती है, तो हम भी हसते है,
वो रोती है, तो हम भी रोते है,
जब वो इन्तजार करती,
तब हम उसके साथ होते है।। 

और जब उसके कदम डगमगाते है,
सम्भालने वालो मे सबसे पहले हमारे हाथ होते है।।

उसकी आँखो से गिरा एक आँसू,
हमारी जिन्दगी मे सैलाब ले आता है।।

और उसके चेहरे की उदासी,
हमारे दिल की धड़कनो को बन्द कर जाता है।।

जब भी वो सफर तय करती,
तो हम उसके रास्ते बन जाते।।

और जब दुविधाओं के बादल छाते,
बरस कर हम उसकी मंजिल आसान कर जाते।।

जब उसका नादान दिल शरारते करता है,
तब हमारा दिल उसको छिपाकर,
खुशी-खुशी हरजाने को भरता है।।

अँधरे मे जब वो खुद को तलाशती है,
तब हम भी गुम हो जाते है,
जुगनूं बनकर हम उसे रौशनी दिखाते है।।

हर पल ये दिल कुछ ऐसा करता रहता है,
एक तमन्ना लिए फिरता रहता है।।

शायद उसकी तलाश इस बार हम पर खत्म हो जाए,
उन सैकड़ो चाहने वालो मे से,
उसकी नजर इस अन्जान दीवाने पर पड़ जाए।।

Monday 20 February 2012

डरती हूँ कही........

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मुठ्ठी मे बंद दुनिया मेरी ,
डरती हूँ कही खोलू तो गिर ना जाए,
कुछ और पकड़ने की  फ़ितरत मे ,कही खो ना दू दुनिया अपनी,
इन आँखों के सामने सब कुछ बिखर ना जाए II

आँखों मे बंद सपने मेरे,
डरती हूँ कही खुल गयी तो सपने पंख लगा कर उड़ ना जाए,
नज़ारो  को देखने की ख्वाहिश ,कही सब कुछ छीन ना ले,
नाराज़ होकर किसी और दिशा की ओर  मुड़ ना जाए II

दिल मे बंद राज मेरे,
डरती हूँ कही खुल गये तो कोहराम ना जाए,
पर कही इसके सवालो जवाबो की फेहरिस्त को सुलझाते सुलझाते,
हर राज बेपर्दा होकर शरेआम ना जाए II

खामोशी मे बंद अनकही मेरी,
डरती हूँ कही खुल गयी तो तूफान ना जाए,
जज्बातों को  बयान करने की चाहत मे ,
कही जिंदगी भर के लिए बेज़ुबान बनकर रहने का मुकाम ना जाए II

होठों मे बंद मुस्कुराहट मेरी ,
डरती हूँ कही खुल गये तो इनकी तड़प  से सब रूबरू ना हो जाए,
एक बार खुल कर जीने की तमन्ना मे,
कही चुभन की नयी परिभाषा शुरू ना हो जाए II

रिश्तो मे बंद खुशिया मेरी ,
डरती हूँ कही ये धागे उलझ कर टूट ना  जाए,
सबको  एक साथ बाँधने की लालच मे,
कही मेरा साथ ही सब से छूट ना जाए II





Sunday 12 February 2012

बस ,यही कहती रहती.......

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खुद को बाँध के रखा था,
एक मजबूत डोर थी II
तूफ़ानो का सामना तो कर सकती थी ,
पर दिल के हाथो  मजबूर थी II

कसाव बहुत था,
खुलने की कोई गुंजाइश ना थी II
जिंदगी को भी आदत हो चुकी थी ,
आज़ादी की कोई फरमाइश ना थी II

पर कही ना कही,
दिल के एक कोने मे,
एक आस थी बची रही  II
आसमान को छूने की,
उसे चूमने की II
इन हवओ से बाते करने की ,
नयी शरारते  करने की II
बारिश की बूदों को अपनी मुट्ठी मे भरने की,
छोटी छोटी बातों पे औरो से लड़ने की II

जो मन के समंदर मे,
हमेशा हिलोरे मारती रहती II
खोल  दे इन बंधनो को,
भूल जा इस आदत को,
यही कहती रहती II

मत सता उसे,
क्यो ज़ुल्म खुद पे हैं करती II
जी ले अपनी जिंदगी,
बस रंग जा इसके रंग मे,
फिर देख दुनिया इसके संग मे,
ये दुबारा नही मिलेगी ,
इस बार कालिया हैं बहुत ,
हर बार तेरी बगिया यू नही खिलेगी,
यही  कहती रहती II
बस ,यही कहती रहती II